Sunday, November 5, 2017

          ग़ज़ल
221  212  1122   12 12
 पत्थर का हो गया है रहम दिल नहीं रहा !
इंसान  इस  जहांन  के काबिल नहीं रहा !

शर्मो  हया  से  दूर  हुआ  जाए  आदमी ,
कैसे  यकीन  कर  लूँ कि जाहिल नहीं रहा !

देखूं  जिधर  उधर  ही नज़र आये आदमी ,
इंसान  ही  कहीं  पे मगर मिल नहीं रहा !

इंसान  बस  गया  है  जमीं काट काट कर ,
कुदरत  के  मामले में वो आदिल नहीं रहा !

पीछे  चला जो  मेरे चला बन के काफिला ,
नाहक  कभी  मैं भीड़ में शामिल नहीं रहा !

किस्मत के हाथ पर मैं बनाता हूँ खुद निशाँ,    ,
मेहनत  को  पूजता हूँ मैं काहिल नहीं रहा !

पंछी  उड़े  तो  केसे  उड़े  आसमान  पर ,
पानी   भी  दूर दूर जो  हासिल नहीं रहा !

                      संजीव कुरालिया 












          ग़ज़ल 221  212  1122   12 12   पत्थर का हो गया है रहम दिल नहीं रहा ! इंसान  इस  जहांन  के काबिल नहीं रहा ! शर्मो  हया  स...