ग़ज़ल
221 212
1122 12 12
पत्थर का हो गया है
रहम दिल नहीं रहा !
इंसान इस जहांन
के काबिल नहीं रहा !
शर्मो हया
से दूर हुआ
जाए आदमी ,
कैसे यकीन
कर लूँ कि जाहिल नहीं रहा !
देखूं जिधर
उधर ही नज़र आये आदमी ,
इंसान ही
कहीं पे मगर मिल नहीं रहा !
इंसान बस
गया है जमीं काट काट कर ,
कुदरत के
मामले में वो आदिल नहीं रहा !
पीछे चला जो मेरे
चला बन के काफिला ,
नाहक कभी मैं
भीड़ में शामिल नहीं रहा !
किस्मत के
हाथ पर मैं बनाता हूँ खुद निशाँ, ,
मेहनत को पूजता
हूँ मैं काहिल नहीं रहा !
पंछी उड़े
तो केसे उड़े
आसमान पर ,
पानी भी दूर दूर जो
हासिल नहीं रहा !
संजीव कुरालिया